शुक्रवार, 26 अप्रैल 2013

मुझे धूप चाहिये


यह शीर्षक कहानी का है और कहानी संग्रह का भी जो अभी -अभी एकलव्य ( भोपाल) से प्रकाशित हुआ है । इस संग्रह में आठ कहानियाँ है । आप कहानी को पढें भी और अपनी बहुमूल्य राय भी देना न भूलें । हाँ पुस्तक एकलव्य  ई--शंकर नगर बी.डी.ए. कालोनी शिवाजी नगर भोपाल---462016 से प्राप्त की जा सकती है ।
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एक था छोटा सा बीज । एकदम गोल-मटोल ,काला-कलूटा ,और बहुत कुछ काली मिर्च जैसा ही था वह छोटा सा बीज ।अगर तुम्हें बीजों की थोडी बहुत जानकारी है तो मुझे यह बताने की जरूरत नही कि वह एक मीठे और गूदेदार पपीता का बीज था । फल खाने के बाद लापरवाही से फेंके गए बीजों में से अलग हुआ वह बीज अनचाहे मेहमान की तरह एक क्यारी में जा पडा था । उस बीज को अनचाहा मेहमान मैंने इसलिये कहा है क्योंकि उस क्यारी में अब कोई भी पौधा बढ कर पेड बनेगा यह न किसी को अनुमान था न ही उम्मीद । इसकी वजह यह थी कि क्यारी में पहले से ही काफी पेड पौधे लगे हुए थे जो बढने के लिये जी जान से कोशिश कर रहे थे ।
इनमें एक नीबू का पौधा था । उसने एक बेसब्र बच्चे की तरह ,जो हर हाल में ज्यादा से ज्यादा हिस्सा पाने की फिक्र में रहता है , अपनी टहनियाँ चारों तरफ फैला रखीं थीं । लेकिन वह अंगूर की बेल से परेशान था जिसने अपने कोमल तन्तु बढाते हुए पहले तो नीबू की टहनियों से जरा सा सहारा माँगा था पर अब हर टहनी पर उसने अपना कब्जा जमा लिया था ।
पास ही एक सन्तरा का पौधा था जिसके हौसले तो पास ही खडे अमरूद के बराबर होने के थे पर वह महीनों से वैसा का वैसा ही खडा था । उधर एक आम का पौधा भी था जो जगह न मिलने के कारण बिना एक भी टहनी निकाले सीधा बढ रहा था खजूर की तरह । उसी क्यारी में लौकी की एक बेल ने गुलाब के पौधे को बातों में उलझा कर बढने से रोक रखा था । कुल मिला कर उस क्यारी में शहर की व्यस्त सडक पर 'ट्रैफिक-जाम' जैसी दशा थी जिसमें सब एक साथ निकलना चाहते हैं पर आसानी से कोई नही निकल पाता ।
खैर मैं तो तुम्हें पपीता के उस छोटे से बीज के बारे में बताना चाहती हूँ । वह सारी मुश्किलों से अनजान ,जरा सी नमी और गरमाहट पाकर धरती फोड कर ऊपर आगया था एक पूरा पेड बनने का सपना लेकर । लेकिन ऊपर आकर उसने कल्पना के विपरीत अपने आपको पेड-पौधों के झुरमुट में घिरा पाया । बिल्कुल भीड में फँसे बच्चे की तरह । 
न तो खुली हवा थी न पत्ते फैलाने को जगह लेकिन सबसे बुरी बात यह कि धूप का एक छोटा टुकडा भी उसे नसीब नही था ।
"लेकिन धूप तो मेरे लिये बहुत जरूरी है ।"---यह सोचते हुए उसने नीबू के पत्तों को देखा जो धूप में चमकते हुए मुस्करा रहे थे ।
"जरा सी धूप मुझे भी दे दो ना"---उस नन्हे पौधे ने नीबू के पत्तों से याचना की लेकिन पत्तों ने जैसे कुछ सुना ही नही । फिर उसने अंगूर की बेल से भी कहा "ए खूबसूरत पत्तों वाली बेल ,कुछ धूप मेरे पास भी आने दो न ।"
"एकदम बेवकूफ--"-अंगूर की बेल इतरा कर बोली--"अपने हिस्से की धूप भला कोई देता है ।"
नन्हे पौधे ने इस तरह हर पौधे से धूप न मिलने की शिकायत करते हुए कुछ धूप माँगी  
पर सबका एक ही जबाब था--"इसमें हम क्या कर सकते हैं ।" 
"सब कितने बेरहम हैं"--नन्हा पौधा दुखी होगया ।
"काश कोई समझ पाता कि मुझे धूप की कितनी जरूरत है । "
"ए नन्हे पौधे ,मेरे विचार से यूँ गिडगिडाने का कोई लाभ नही है ।"--गीली मिट्टी में पनपती मनीप्लांट की बेल ने कहा--"वैसे भी माँगने पर आसानी से कुछ नही मिलता । धूप तो बिल्कुल भी नही ।"
"ओह ,तब तो मुझे अफसोस करना होगा कि उगने के लिये बहुत ही गलत जगह चुनी है मैंने ।"
"अफसोस करने की जगह तुम खुद ही धूप हासिल करने की सोचो न । किसी भी तरह ।"
कुछ मुश्किल और चुनौती भरा होने के बावजूद नन्हे पौधे को यह सुझाव पसन्द आया और धूप की कल्पना करते हुए उसने बढना शुरु किया । जल्दी ही उसके पत्ते बडे और मजबूत होने लगे । हफ्ते भर में तो वे नीबू की निचली टहनियों को छूने के मनसूबे बनाने लगे ।
"ऐसा सोचने से पहले जान लो नन्हे पौधे कि मेरे काँटे तुम्हें नुक्सान पहुँचा सकते हैं । और इसके लिये मुझे दोष मत देना ।"--नीबू के पेड ने बडे सधे हुए लहजे में कहा पर वास्तव में उसे पौधे का बढना पसन्द नही था ।
नन्हा पौधा समझ गया कि नीबू के पेड का इरादा उसे रास्ता देने का है नही सो उसने अपने तने को कुछ तिरछा किया ,पत्तों को झुकाया जैसा हम नीचे दरवाजे से गुजरते हुए करते हैं और बगल में थोडी सी जगह पाकर बढने लगा । धूप जैसे उसे बुला रही थी और वह बढा जा रहा था । उसके पत्ते पहले से बडे और खूबसूरत होगए और अंगूर की बेल के ऊपर फैल गए ।
'यह तो अंगूर की बेल के लिये नुक्सानदायक होगा '--यह कहते हुए किसी ने उसके बडे बडे पत्ते डण्ठल सहित तोड डाले ।
"मेरी परवाह तो है ही नही किसी को"--नन्हा पौधा पल भर को उदास हुआ पर अगले ही पल खुद को तसल्ली भी दे डाली---"अच्छा है ,इनके बिना बढने में ज्यादा आसानी होगी ।"
और इस तरह वह नन्हा पौधा ,जिसे अब नन्हा कहना तो नासमझी ही होगी ,हर रुकावट को पीछे छोडता ऊपर बढता रहा । पेड-पौधों और चिडियों के बीच उसकी चर्चाएं होती रहीं कि "देखो आज उसके दो पत्ते और निकल आए । ...अब उसके पत्तों ने नीबू को ढँक लिया है ..अब वह अमरूद को छूने की कोशिश में है ..अरे देखो उसके पत्ते कितने बडे होगए हैं एकदम छतरी जैसे ..।"
"इस तरह भी कोई बढ सकता है भला !"--चिडियाँ कह रहीं थीं ।
लेकिन मुझे तो भरोसा था क्योंकि वह धूप के लिये इतना उत्सुक जो था ।--मनी प्लांट की बात उस पपीता के पत्तों तक नही पहुँच सकी जो सारे पेडों के ऊपर छतरी की तरह फैले धूप में मुस्करा रहे थे ।

मंगलवार, 16 अप्रैल 2013

दे दो बॅाल हमारी




बॅाल हमारी दे दो अम्मा ।

बात हमारी सुनलो अम्मा।

आँगन में, या छत पर होगी ।
अबकी बार और दे दोगी ,
फिर हम कभी नहीं आएंगे ।
कसम हमारी ले लो अम्मा ।
बाल हमारी दे दो अम्मा 

मंटू है उत्पाती पक्का ।

इसने ही मारा है छक्का ।
चाहो इसके कान खींचलो,
दरवाजा तो खोलो अम्मा ।
बॅाल हमारी दे दो अम्मा 


कहती हो तुम , यहाँ न खेलो।

फिर तुम कहो कहाँ हम खेलें ।
घर छोटे हैं गलियाँ सँकरी,
अब मैदान कहाँ हैं अम्मा ।
बॅाल हमारी दे दो अम्मा ।

बुधवार, 10 अप्रैल 2013

नींद हुई नौ दो ग्यारह


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बडे सबेरे ,
नीम अँधेरे ।
सपनें की बस्ती में ,
मुन्नू लगा रहे थे फेरे ।
तभी पडी कानों पर दस्तक ---
कुकडूँ..कू...,
चीं..चीं..चूँ...चुक.चुक...।
सोये अब तक !!
छोडो चादर,
देखो बाहर ,
भैया आकर ।
सोया था जो साथ घनेरा ,
मित्र अँधेरा
,गया कभी का उठ कर ।
 दबा नींद के बिस्तर ।
पंछी देखो उडे चहक कर ,
नीले अम्बर ।
कलियाँ मुस्काई हैं खिल कर  
कर आई लो सैर हवा भी,
मीलों चल कर ,
भीनी-भीनी खुशबू लेकर ।
सुना ,
कुनमुनाए मुन्नू जी 
तुनके कुछ गरमाए ।
यह भी कोई बात कि ,
चाहे जो बेवक्त जगाए ?
आँखें मलते बाहर आए ,
जो टकराईं किरणें पहली,
धूप सुनहली ,
मोहक उजली ।
मुन्नू जी थे हक्के-बक्के ,
नींद हुई नौ दो ग्यारह ,
आलस के छूटे छक्के ।